Sunday, June 19, 2011

A father's poem for his daughter

Many, many moons ago I bought Javed Akhtar's 'Tarkash' and it became the Bible of my creative expression. I read and re-read the poems and found something new to learn in them every time.I used the poems in my plays, especially Phasaad se Pehle and Phasaad ke Baad which I used as a thematic narration in Jis Lahore Nahin Wekhya. 

Of all the poems in Tarkash Doraha is my personal favorite. Today on Father's Day, here's Javed Saheb's Doraha for all the daughters out there - who are the apples of their fathers' eyes and also their greatest worries. From a Father to a Daughter...

दोराहा 
अपनी बेटी ज़ोया के नाम

यह जीवन इक राह नहीं
एक दोराहा है

पहला रस्ता
बहुत सहेल है
इसमें कोई मोड़ नहीं है
यह रस्ता
इस दुनिया से बेजोड़ नहीं है
इस रस्ते पर मिलते हैं
रीतों के आँगन
इस रस्ते पर मिलते हैं
रिश्तों के बंधन 
इस रस्ते पर चलने वाले
कहने को सब सुख पाते हैं 
लेकिन 
टुकड़े टुकड़े होकर
सब रिश्तों में बट जाते हैं
अपने पल्ले कुछ नहीं बचता 
बचती है
बेनाम सी उलझन
बचता है 
साँसों का ईंधन
जिसमे उनकी अपनी हर पहचान
और उनके सारे सपने
जल बुझते हैं
इस रस्ते पर चलने वाले
खुद को खो कर जग पाते हैं
ऊपर ऊपर तो जीते हैं 
अन्दर अन्दर मर जाते हैं.

दूसरा रस्ता 
बहुत कठिन है
इस रस्ते मैं
कोई किसी के साथ नहीं है
कोई सहारा देने वाला हाथ नहीं है
इस रस्ते में धूप है 
कोई छाओं नहीं है
जहाँ तसल्ली भीख में दे दे कोई किसी को
इस रस्ते में 
ऐसा कोई  गाँव नहीं है
यह उन लोगों का रस्ता है
जो खुद अपने तक जाते हैं
अपने आप को जो पाते हैं
तुम इस रस्ते पर ही चलना.

मुझे पता है
यह रस्ता आसान नहीं है
लेकिन मुझको यह ग़म भी है
तुमको अब तक
क्यों अपनी पहचान नहीं है.

(जावेद अख्तर )