Friday, May 28, 2010

घाव 
मेरे घाव का कोई नाम नहीं
कोई परिभाषा नहीं...
रूप नहीं, आकार नहीं 
पर कहीं तो है वो कांटे सा नोकीला
कुछ...
जो बिन पूछे मुझे 
अन्दर ही अन्दर कुरेदता है
जो जब चाहे... 
मेरे ज़ेहन में अपना डेरा जमा कर 
मेरे अहम् के टुकड़े टुकड़े कर देता है. 
धंसे हुए उस कांटे को अब निकालो कोई..
के दर्द तीखा है, तपिश तेज़ है...
साँसें उखड़ी हैं, तड़प गहरी है.
तिल तिल  रीसते मेरे घाव की
कुछ तो दवा दो...
के अब आंसुओं में मवाद
पूरा निकलता नहीं...

किरन

1 comment:

Shunty said...

Really nice one! :)